सिख – धर्म का मर्म
जब-जब धर्म की हानि होती है तब तब महापुरुषों का अवतरण होता है । 400-500 वर्ष पूर्व , जब भारतीय जनमानस पर विदेशी आक्रांताओं की बर्बरता बढ़ती जा रही थी, उस समय वेदी वंश में , श्री गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ ।
श्री गुरु नानक देव जी, भारतीय समाज की इस दयनीय अवस्था से, बहुत अधिक व्यथित थे । हिंदू समाज भी बहुत सी सामाजिक कुरीतियों में जकड़ चुका था । धर्मांडरों में उलझ रहा था। श्री गुरु नानक देव जी ने, अध्ययन, तप, संयम, साधना एवं तर्कशक्ति के आधार पर ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास किया। लोगों के दुख दूर करने का प्रयास किया ।
भारतीय समाज के उद्धार के लिए, श्री गुरु नानक देव जी ने चारों दिशाओं में चार उदासियां (यात्राएं) कीं। इन के माध्यम से विभिन्न स्थानों पर डेरा डालकर, साधु-संतों आदि से विचार-विमर्श करके, सीखते-सिखाते, अपनी तप-शक्ति एवं तर्क-शक्ति से , सबको प्रभावित करके स्थानीय लोगों के कष्ट दूर करने का प्रयास करते करते “सिख-पंथ” के संस्थापक बने।
“सतगुरू नानक परगट होया
मिट्टी धुंध जग चांदन होया”
श्री गुरु नानक देव जी ने, ज्ञान और धर्म के मूल तत्व एवं शुद्ध व निर्मल स्वरूप को , सरल और स्थानीय भाषा में “गुरु-वाणी” के रूप में स्थानीय जनसामान्य तक पहुंचाने का कार्य किया।
“एक ओंकार” के सच्चे नाम पर, लोगों की श्रद्धा और आस्था केंद्रित की। अच्छा और सच्चा जीवन जीने के लिए तीन सूत्र प्रतिपादित किए।
नाम जपो – परमात्मा का नाम जपते रहो ,स्मरण करते रहो ।
कीरत करो- जीविका चलाने के लिए, काम करो।
वंड चखो – सबको बांट कर खाओ, कोई भूखा ना रहे।
श्री गुरु नानक देव जी से शुरू हुई सिख-गुरु परंपरा में, पांचवें गुरु श्रीअर्जुन देव जी ने गुरु-वाणी और गुरुओं के संदेश को “गुरु ग्रंथ साहिब” में संकलित किया।
उस समय सभी मुगल आक्रांता और शासक, भारतीय जनता पर बर्बर अत्याचार करते हुए , धर्म परिवर्तन का दबाव बनाते थे । स्थानीय निवासी अपना धर्म बचाने की गुहार लगाते थे । इसी क्रम में जहांगीर के शासनकाल में, पांचवें गुरु “श्री गुरु अर्जुन देव जी” ने, स्थानीय हिंदू धर्म बचाने के लिए, इस्लाम कबूल करने के लिए मना कर दिया और भभकती भट्टी पर रखे, गर्म तवे पर बैठकर ऊपर से गर्म मिट्टी डलवाना स्वीकार करके, स्वयं का बलिदान दिया।
मुगल शासकों के, अत्याचार और धर्मांतरण के दबाव किसी भी समय कम नहीं हो रहे थे।
औरंगजेब ने तो क्रूरता की सभी हदें पार कर दी थीं। नौवें गुरु “श्री तेग बहादुर जी” ने बहुत बड़े क्षेत्र में, हिंदू धर्म बचाने के लिए, स्वयं ही इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया। इसीलिए “श्री गुरु तेग बहादुर जी” को विचलित करने के लिए, उनकी आंखों के आगे, औरंगजेब के आदेश पर उनके साथियों को बर्बरता पूर्वक रुई में बांधकर जलाया गया, आरे से चीरा गया, खौलते कड़ाहे में डालकर मारा गया । फिर इसके बाद, दिल्ली के चांदनी चौक में, “गुरु तेग बहादुर जी” का सिर कलम कर दिया गया।
स्थानीय हिंदू धर्म की रक्षा की खातिर, गुरु तेग बहादुर जी के पुत्र “श्री गुरु गोविंद सिंह जी” दसवें गुरु के रूप में, पूरे जीवन भर मुगलों के साथ युद्ध करते रहे । सामान्य भारतीय जन समाज की रक्षा के लिए, स्थानीय परिवारों से एक-एक “लड़का” लेकर कड़ा, कच्छा, कंघा, केश,कृपाण, धारण करवाके, “खालसा” के रूप में, मुगलों से लड़ने के लिए, अपनी सेना तैयार की ।”गुरु ग्रंथ साहिब” को सदैव “गुरु” के रूप में स्थापित किया ।
स्थानीय धर्म और जन को मुगलों से बचाना ही “गुरु गोविंद सिंह जी” के जीवन का लक्ष्य बन गया था।
दसवें गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह जी का पूरा “परिवार” चारों पुत्र, माता गुजरी जी सभी ने औरंगजेब के आदेश के कारण अपना बलिदान दिया। 21 दिसंबर से 27 दिसंबर के एक सप्ताह में, गुरु गोविंद सिंह जी के दो पुत्र चमकौर की लड़ाई में शहीद हो गए, साहिबजादों को दीवार में चिनवा दिया गया । माता गुजरी ने भी, इसी समय अपने प्राण त्याग दिए।
गुरु गोविंद सिंह जी ने वेद-पुराणों का अध्ययन और उन्हें गुरुमुखी/ पंजाबी में व्यक्त करने हेतु निर्मल संप्रदाय बनाया। मुगलों से युद्ध के लिए “खालसा” के रूप में रक्षा पंक्ति, तैयार की।
प्रथम गुरु श्री गुरु नानक देव जी से लेकर दशम गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह जी तक सभी गुरुओं ने, स्थानीय हिंदू धर्म की रक्षा एवं संवर्धन के लिए , मुगलों के अत्याचारों का विरोध किया, मुगल शासकों के साथ युद्ध किए । इसके अलावा अपना तथा अपने साथियों और परिवार का बलिदान भी किया । कभी भी सिख को हिंदू से पृथक नहीं किया । बर्बरता एवं प्रलोभन के बावजूद भी इस्लाम कबूल नहीं किया।
बहुत ही क्षोभ एवं दुख का विषय है कि, स्वार्थ और विदेशी धन के बल पर ‘सिख फॉर जस्टिस’ या ‘खालिस्तानी ग्रुप’ आदि पाकिस्तानी मुगल शासकों के जाल में फंस कर , अपने ही “गुरुओं” के बलिदान का “अपमान” कर रहे हैं । मातृभूमि भारत के विरुद्ध ही षड्यंत्र रच रहे हैं ।इससे न केवल आम सिख-समाज भ्रमित एवं दुखी हो रहा है बल्कि हिंदू समाज भी दुखी हो रहा है। वास्तव में सिख और हिंदू में तो कोई मूलभूत भेद है ही नहीं। घटिया राजनीति के कारण भ्रम-पूर्ण वातावरण तैयार किया जा रहा है ।
“गुरु-ग्रंथ साहिब” में गुरुओं की वाणी से, सही मार्ग प्रशस्त होता है। नाम-जप, कीरत-कर,वंड-चख, व्यवहार में परिलक्षित होता है । किसी भी प्रकार की कट्टरता या कर्मकांड का निषेध कर, “मानवीय-मूल्यों” की स्थापना का नाम ही “सिख-धर्म” है।
विधु गर्ग
Leave a Reply