मातृभाषा – स्थानीय गाथा
विश्व के प्राचीनतम लिखित ग्रंथ “वेद” माने गए हैं । ये ग्रंथ “संस्कृत में लिखे गए हैं। प्राचीन ऋषि-मनीषियों ने, मानव उपयोगी ज्ञान को, संस्कृत भाषा के माध्यम से शास्त्रों में संचित करने का प्रयास किया। सामान्य बोलचाल हेतु प्राकृत भाषा को व्यवहारित किया ।
एक मान्यता के अनुसार “प्राकृत” के अपभ्रंश के रूप में “हिंदी” व्यवहार में आई। इसी प्रकार अलग-अलग क्षेत्रों में, अलग-अलग अन्य स्थानीय बोली-भाषा अपने इतिहास को सहेजती हुई मुखरित हुई।
विभिन्न भाषाएं बिना किसी बैर, द्वेष या आधिपत्य के, स्थानीय स्तर पर, पनपने लगी तथा क्षेत्र विशेष की मातृभाषा के रूप में प्रतिष्ठित होती गईं ।
भारतीय “राष्ट्रीय-संस्कृति” को हजारों बोलियां और सैकड़ों क्षेत्रीय भाषाएं समेटे हुए हैं ।
विभिन्न आक्रमणों और दबावों के कारण कई क्षेत्रों की बोली और भाषा नष्ट भी हुई है , और कमजोर भी पड़ी है। 1000 साल की गुलामी के उपरांत भी , भारत में अधिकांश बोलियां और भाषाएं जीवित हैं क्योंकि यह मातृभाषा के रूप में प्रतिष्ठित थी और क्षेत्रीय भाषा के रूप में व्यावहारिक भी थीं।
भाषा संस्कृति की संवाहक है। किसी भी स्थान विशेष की संस्कृति को नष्ट करने के लिए, सर्वप्रथम उस क्षेत्र की भाषा पर ही प्रहार किया जाता है ।
वर्तमान संदर्भ में, भारत विभाजन के उपरांत पश्चिमी पाकिस्तान एवं पूर्वी पाकिस्तान अस्तित्व में आए । पश्चिमी पाकिस्तान में उर्दू को राजभाषा का दर्जा दिया गया और बांग्ला भाषी पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) पर भी यही निर्णय थोपा गया। इसके विरुद्ध वहां छात्र आंदोलन हुआ और 21 फरवरी 1952 को पुलिस द्वारा आंदोलनकारियों पर गोलीबारी की गई ।जिसके फलस्वरूप अब्दुल जब्बार, अब्दुल सलाम ,अबुल बरकत, रफीकउद्दीन अहमद, शफीउर रहमान मारे गए, और बहुत से लोग घायल हुए।
पूरे विश्व में मातृभाषा के लिए शहादत देने की यह पहली घटना थी। बांग्लादेश के प्रयासों से, 2008 से यूनेस्को द्वारा 21 फरवरी को “मातृभाषा-दिवस” के रूप में आयोजित किया जा रहा है। इसके माध्यम से विश्व की सभी स्थानीय भाषाओं को संरक्षित करने के उद्देश्य से, एक जागरूकता अभियान भी चलाया जा रहा है।
मातृभाषा दिल की भाषा होती है, मां के द्वारा बच्चे को संप्रेषित की जाती है। क्षेत्रीय स्तर पर , लोक-भाषा में कहावतें, कहानी, गीत, रीति-रिवाज, परिपाटी आदि पूरे परिवेश की संस्कृति, इतिहास और ज्ञान को समेटे हुए होती है । बातों-बातों में पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर सहज रूप से ही स्थानीय संस्कृति , भावी पीढ़ी को संप्रेषित होती रहती है।
भारत के गुलामी के दौर में फारसी और अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषाओं को पूरी तरह से थोपने का प्रयास किया गया । मातृभाषा की स्थिति सुदृढ़ होने के कारण, भारत के किसी भी क्षेत्र में ये विदेशी भाषाएं घर के अंदर नहीं घुस पाईं। भरसक प्रयासों के बावजूद यह भाषाएं केवल काम-काज की ही भाषा बन पाईं।
स्वतंत्रता के उपरांत अंग्रेजी को राजकाज की सहयोगी भाषा के रूप में रखा गया। क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों के कारण, क्षेत्रीय भाषाओं में वैमनस्यता उत्पन्न करने का असफल प्रयास किया गया । अंग्रेजी मानसिकता के चलते एक छद्म अभिजात्य वर्ग को महत्व दिया जाने लगा। फलस्वरुप अंग्रेजी संस्कृति को प्रचारित करते हुए, निजी “इंग्लिश मीडियम” स्कूलों की बाढ़ आ गई । समाज में उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित करने एवं अच्छी नौकरी के उद्देश्य से , मध्यम वर्ग को भी , अपने बच्चों को इन महंगे इंग्लिश स्कूलों में पढ़ाने की होड़ सी लग गई। वर्तमान में भी इन स्कूलों में पढ़ने वालों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। काम-काज की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी भाषा में किसी से कम नहीं है और पारिवारिक स्तर पर मातृभाषा अपना स्थान संरक्षित किए हुए हैं ।
इसी बीच कई वैज्ञानिक सर्वेक्षणों से यह तथ्य भी सामने आया है कि यदि बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही कराई जाए तो वह छात्रों, समाज और राष्ट्र के लिए अधिक लाभदायक होता है । मातृभाषा में जब सीखने का अवसर मिलता है , तो छात्रों में मौलिकता , रचनात्मकता, ग्राह्यता और विषय की गहरी समझ के साथ बुद्धि का विकास होता है। फल स्वरुप छात्र अपना उत्कृष्ट समाज को और राष्ट्र को अर्पित करते हैं।
किसी भी भाषा को यदि शिक्षण के साथ संबद्ध कर दिया जाए तो निश्चित रूप से उसका विकास और संरक्षण तीव्र गति से होता ही है । मातृभाषा के स्तर पर तो यह कार्य “सोने पर सुहागा” का काम करता है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से, प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा से जोड़ने का प्रयास किया गया है। वर्ष 2022-2023 के बजट में एक डिजिटल यूनिवर्सिटी की भी व्यवस्था की गई है। जिसमें विभिन्न भाषाओं को शिक्षण के साथ जोड़ने का प्रावधान भी है ।
मातृभाषा और स्थानीय भाषाओं और विभिन्न बोलियों को आज के डिजिटल युग में , विभिन्न ब्लॉग, यूट्यूब चैनल इत्यादि के माध्यम से सहज ही प्रचारित किया जा सकता है।
21 फरवरी मातृभाषा दिवस के संदर्भ में, विभिन्न समाचार पत्रों द्वारा प्रति सप्ताह 2 पेज का परिशिष्ट निकाला जा सकता है। जिनमें विभिन्न भाषाओं की लोककथा, उत्सव, पर्यटन, गीत, कविता, चुटकुले इत्यादि को स्थान मिले । विभिन्न भाषाई लोग संबद्ध रचना को आत्मसात करते हुए समाचार पत्र से स्वत: ही अपनापन स्थापित करेंगे। इसके अलावा पाठक-गण भी अपने लेख और सुझाव भेजने को उत्साहित होंगे । अन्य भाषायी लोगों की भी, इसके प्रति रचनात्मकता और उत्सुकता जगेगी।
प्राथमिक स्तर पर स्कूलों में भी , विभिन्न भाषाओं को लेकर छोटी-छोटी प्रतियोगिताएं आयोजित की जा सकती हैं । इस प्रकार खेल-खेल में ही कई भाषाओं के प्रति छात्रों की रुचि जागृत की जा सकती है । सदैव पाठ्यक्रम के माध्यम से ही भाषाओं की जानकारी देना आवश्यक नहीं होता।
विश्व मातृभाषा दिवस के उपलक्ष्य पर जागरूकता बढ़ाकर एवं विभिन्न स्तरों पर छोटे-छोटे उपाय अपनाकर न केवल विभिन्न बोलियों और भाषाओं को स्थानीय स्तर पर संरक्षित किया जा सकता है, अपितु स्थानीय इतिहास, संस्कृति, लोक कलाओं को भी संरक्षित एवं समृद्ध किया जा सकता है।
विधु गर्ग
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