प्रकृति
दौड़ती-भागती
जीवन की आपाधापी से जबरन
कुछ पल खींच
सहज-सरल
मन को भी सींच
नंगे पैर
आंगन में बैठ
निहार
जमीन का
सहज जल-पान
माटी का
सौंधा-सौंधा गंध गान छोटे-छोटे पौधों का
पुष्ट होता मान
मदमस्त पवन संग
छिड़ती, तरु-तान
बादलों की चुनरी
ओढ़ता आसमान
मन-मोहक
गुच्छित-पल्लवित पुष्पों का
रंग-राग
न रोक
प्रसन्नचित्त
रिमझिम फुहारों के बीच भीग-भाग
कृतज्ञ
नव-ऊर्जा सिंचित
तन-मन
अद्भुत, अतुलनीय अवर्णनीय
रचनाकार का,सृष्टि सृजन
सौंदर्य-समृद्धि, प्रकृति-उपवन
पल-पल, क्षण-क्षण सिंचित रहे
महकती रहे निरंतर….।।
विधु गर्ग
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