प्रचार की आवश्यकता
प्रचार विभाग की संकल्पना, राष्ट्रीय समाज के दृष्टिकोण में, सकारात्मकता बढ़ाने के लिए आवश्यक है। समाज में व्याप्त भ्रामक अवधारणाओं का प्रतिकार, तथ्यात्मक बिंदुओं का प्रचार करके किया जा सकता है ।
प्रचार का अर्थ यही है कि, किसी भी विषय , तथ्य, कार्यक्रम आदि की जानकारी का समाज में व्यापक रूप से विस्तार करना और इसके माध्यम से लोगों को जोड़ना। जितनी अधिक संख्या में लोग जुड़ते हैं , उतना ही अधिक संबंधित संगठन, विषय, तथ्य, कार्यक्रम इत्यादि का प्रभाव और शक्ति बढ़ती है। प्रचार के माध्यम से, समाज और राष्ट्र में संबंधित सोच स्थापित होती है।
स्वतंत्रता के उपरांत, सकारात्मक सोच वाले लोग और संस्थाएं, जमीनी स्तर पर, अपने-अपने राष्ट्रहित के कामों में, तन्मयता के साथ जुड़े रहे। किंतु नकारात्मक सोच वाले लोगों और संस्थाओं ने, प्रचार को अपना मुख्य हथियार बनाकर, धीरे-धीरे समाज के एक वर्ग और उत्तरोत्तर पीढ़ियों को भ्रामक अवधारणाओं में जकड़ लिया । परिणामत: शाश्वत सत्य पर ही प्रश्न खड़े होने लग गए, उदाहरण के लिए, धारा 370 हटाई नहीं जा सकती या फिर राम मंदिर केवल एक राजनीतिक मुद्दा है ।
संचार क्रांति के युग में तो, समाज की सोच को प्रभावित करने की दृष्टि से प्रचार की एक बहुत बड़ी भूमिका स्पष्ट हो चुकी है। विज्ञापनों की भरमार इसी बात का उदाहरण है “जो दिखता है वही बिकता है”। 1970 के दशक से पहले प्रचार का सीमित प्रभाव था ।टेलीविजन चैनलों की सक्रियता बढ़ने के बाद, जानकारियों और प्रचार का व्यापक प्रभाव हो गया। इंटरनेट और सोशल मीडिया के युग ने तो व्यक्ति या संस्था का, लोगों से सीधा संबंध स्थापित कर दिया है । जितनी अधिक संख्या में लोग किसी के साथ जुड़ते हैं, उतना ही अधिक उस विचार का प्रभाव, व्यापक होता है। यह प्रभाव, नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों ही तरह से समाज में स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है । विश्व के कई देशों में , सोशल मीडिया के नकारात्मक प्रचार से, दंगे और तख्तापलट के उदाहरण भी हमारे सामने हैं। इसी प्रकार सकारात्मक प्रचार के माध्यम से, समाज में जागरूकता भी बढ़ती है।
आपा-धापी भरे जीवन और रोजी-रोटी के चक्र में, उलझे सामान्य जनसाधारण के पास इतना समय ही नहीं होता कि, वह विभिन्न विषयों की सत्यता परखने के लिए अपनी उर्जा वहां लगा सके। जैसा उसके सामने “परोसा” जाता है , वैसा ही उसे ठीक लगने लगता है। पिछले 60-70 वर्षों में भारत में ही, भारतीय संस्कृति, इतिहास इत्यादि के संदर्भ में, भ्रामक विचारों का प्रचार, संस्थागत तरीके से किया गया है। परिणामत: कई बार ना चाहते हुए भी, भारतीय जनमानस को “प्रचारित भ्रम” को स्वीकार करना पड़ा है। संभवतः इसी कारण भारतीय परंपराओं में जीने वाली जनता, पिछड़ी, दकियानूसी और अशिक्षित नजर आने लगती हैं। जबकि विदेशी विचारधाराओं का अनुकरण और अंधानुकरण करने वाली पीढ़ियां, सभ्य , पढ़ी-लिखी, वैश्विक और आधुनिक होने का दंभ भरती दिखाई देती हैं ।
यह बात पूर्ण रूप से सत्य है कि, झूठ के पैर नहीं होते। किंतु यदि एक ही झूठ सौ बार दोहराया जाए तो, वह भी “सच-सा” प्रतीत होने लगता है तथा इस भ्रम में “अकेला खड़ा” वास्तविक “सत्य” कहीं ओझल हो जाता है । अतः इस भ्रम पूर्ण वातावरण में “सत्य” के साथ अधिक से अधिक लोगों को खड़ा होने की आवश्यकता है ताकि भ्रम-जाल टूटे और “सत्य” स्पष्ट दिखाई दे। प्रचार की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है ।
जमीन से जुड़ी सकारात्मक इकाइयों के लिए, आवश्यक हो जाता है कि, वह जमीनी स्तर पर किए जा रहे, अपने कार्यों को, तो निर्बाध रूप से करती रहें, लेकिन अपने विचारों को व्यापक रूप से प्रतिस्थापित करने के लिए, अपने “प्रचार-तंत्र” को मजबूत करें । तकनीक में कुशल व्यक्तियों को पूर्णकालिक रूप से नियुक्त करें । प्रभावी योजनाएं बनाकर , अतिरिक्त आर्थिक संसाधन जुटाकर ,अपनी वैचारिक प्रबुद्धत्ता को, व्यापक परिदृश्य में प्रतिस्थापित करें ।
इस नव जागरण काल में, समय की मांग है कि इन सकारात्मक इकाइयों को “दोहरे स्तर पर” अपनी लड़ाई लड़नी होगी । पहले, समाज में व्याप्त नकारात्मक भ्रम को समाप्त करना होगा और फिर सकारात्मक तथ्य को स्थापित करना होगा। निश्चित रूप से यह कार्य आसान नहीं है किंतु फिर भी प्रचार और तकनीक के इस युग में प्रचार और तकनीक को ही माध्यम बनाकर, अतिरिक्त ऊर्जा, सटीक योजना , आर्थिक स्वातंत्र्य और कुशल व्यक्तियों के साथ, कम समय में ही यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है।
प्रचार के इस युग में, सत्य-तथ्यों पर आधारित फिल्म “कश्मीर फाइल्स” इसका ज्वलंत उदाहरण है कि “नकारात्मक प्रचार तंत्र” ने, पहले अपना चिर-परिचित खेल शुरू किया , किंतु सोशल मीडिया के जागरूक लोगों ने , सकारात्मकता के साथ , जब फिल्म संबंधित सत्य-तथ्यों को प्रचारित करना शुरू किया तो , संपूर्ण भारत के लोग , भाषा-क्षेत्र आदि के भेद , “नकार कर” इस फिल्म से जुड़कर, “कश्मीरी हिंदुओं के दर्द” को महसूस करने लगे । अब कश्मीरी हिंदुओं का पलायन, और नरसंहार, जनजागृति का मुद्दा बना हुआ है। निश्चित रूप से “प्रचार-तंत्र” लोगों को प्रभावित करता है। जन सामान्य को, अपने साथ जोड़ता है।
विधु गर्ग
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