युगांत – सुमित्रानंदन पंत

युगांत

 

द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र

गा कोकिल, बरसा पावक कण

झर पड़ता जीवन डाली से

चंचल पग दीप-शिखा-से

विद्रुम औ मरकत की छाया

जगती के जन पथ, कानन में

वे चहक रहीं कुंजों में

वे डूब गए

तारों का नभ

जीवन का फल

बढ़ो अभय, विश्वास-चरण धर

गर्जन कर मानव-केशरि!

बाँसों का झुरमुट

जग-जीवन में जो चिर महान

जो दीन-हीन, पीड़ित

शत बाहु-पद

ए मिट्टी के ढेले

खो गई स्वर्ग की स्वर्ण किरण

सुन्दरता का आलोक

नव हे, नव हे

बाँधो, छबि के नव बन्धन

मंजरित आम्र वन छाया में

वह विजन चाँदनी की घाटी

वह लेटी है तरु छाया में

 

– सुमित्रानंदन पंत