संत रविदास
भारतीय प्राचीनतम सनातन संस्कृति ही विश्व की जीवन्त संस्कृति है। शायद इसका एक कारण यह भी है कि, भारतीय सनातन संस्कृति में, जन्म नहीं कर्म ही मूल है । कर्म ही धर्म है । इसीलिए कहा भी जाता है।
जात पांत पूछे नहीं कोई
हरि को भजे सो, हरि का होई ।।
आज से लगभग 600-700 वर्ष पूर्व, भारत के मुगल शासन के समय वर्ष 1433 में, चर्मकार परिवार में, संत कवि रविदास जी का जन्म, माघी पूर्णिमा के दिन, बनारस काशी में हुआ था।
रविदास जी भी अपने पैतृक व्यवसाय में संलग्न थे, और जूते बनाने का कार्य करते थे । रविदास जी का मन और स्वभाव, परोपकार, दया, निस्वार्थ भाव, भक्ति आदि गुणों से परिपूर्ण था ।
कबीर दास जी, संत रामानंद जी के शिष्य थे। कबीर दास जी की ही प्रेरणा से रैदास जी(रविदास जी) संत रामानंद जी के शिष्य बने। जहां उन्होंने ज्ञान, भक्ति इत्यादि का, सार प्राप्त किया तथा अपने व्यवहार, काव्य एवं उपदेशों के माध्यम से, जन जागृति का काम किया ।
आक्रांताओं के आक्रमण और अत्याचार तथा जबरन धर्म परिवर्तन के कारण भारतीय हिंदू समाज में बहुत सी, सामाजिक कुरीतियों ने जन्म ले लिया था । कवि रविदास अपने दोहों के माध्यम से , झूंठे आडंबरों पर चोट करके, समाज को सही दिशा दिखाने का कार्य करते थे ।
संत रविदास स्वयं अपने जीवन में, उच्च आदर्शों का पालन करते थे ।जीवन के मर्म को समझने का प्रयास करते थे। एक बार वो जूते बनाने के कार्य में उलझे हुए थे । उसी समय गंगा स्नान पर्व की महत्ता देखते हुए, उनके शिष्य ने संत रैदास जी से, गंगा-स्नान के लिए चलने का आग्रह किया। संत रैदास ने कहा कि अभी मेरा सारा ध्यान इस कर्म में लगा हुआ है, गंगा स्नान करते समय भी मेरा ध्यान यहीं रहेगा तो ऐसे कर्म का क्या लाभ? इससे तो यहां पर , ये काम करते हुए, मां गंगा का ध्यान करूं, तो ज्यादा अच्छा है ।
“मन चंगा तो कठौती में गंगा”
अर्थात मनुष्य के मन की पवित्रता सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । संत रैदास के छोटे-छोटे दोहों में जीवन के गूढ़ अर्थ और संदेश छुपे हुए हैं। यह संदेश 700 वर्षों से लगातार समाज का दिशा निर्देशन करते आ रहे हैं। संत रविदास जी मीराबाई के भी गुरु थे ।
भक्ति काल के महान संत कवि , भक्त रविदास जी को सादर वंदन।
विधु गर्ग
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