कश्मीर फाइल्स

कश्मीर फाइल्स

कश्मीर फाइल्स ने पूरे भारत को एकजुट करने और एकरूपता में पिरोने का कार्य अवश्य किया है ।

कश्मीरी हिंदू पंडितों का पलायन और नरसंहार 1989-1990 में हुआ । वीभत्स जनसंहार के कारण, 19 जनवरी 1990 को, रातों-रात लाखों हिंदुओं को, कश्मीर से निकलना पड़ा। अपना घर-बार, जमीन – जायदाद छोड़कर, अपने ही देश में, शरणार्थी कैंपों में रहना पड़ा । पिछले 30-32 वर्षों में भी, वे हिंदू शरणार्थी दुबारा अपनी पैतृक भूमि पर नहीं लौट पाए । इतनी बड़ी हृदय विदारक घटना, तत्कालीन समय पर तो अखबारों की सुर्खियां बनी। किंतु कालांतर में इस घटना को , सतही तौर पर लेकर सरकारों , मीडिया और तो और सामान्य जनता ने भी भुला दिया ।

लेकिन 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा (बाबरी मस्जिद) ध्वस्त होने को इतनी बड़ी खबर बनाया गया कि, “केंद्र द्वारा” सरकारी कार्यवाही के रूप में, 4 राज्यों की चुनी हुई सरकार को बर्खास्त कर दिया गया। देश-विदेश में सालों-साल, लगातार इस मुद्दे को गरमाया जाता रहा ।

अभी भी भारत जैसे विशाल देश में , अगर किसी स्थान पर संदिग्ध कारणों से ,
एक-दो लोगों की
“मॉब लिंचिंग” हो गई तो इसके कारण पूरे भारत देश को ही असहिष्णु कहने से परहेज नहीं किया गया। न केवल पूरे भारत में, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी नकारात्मक प्रचार-तंत्र द्वारा इस बात को उछाला गया। बड़े-बड़े नेता ,अभिनेता, पत्रकार इत्यादि को भारत में शर्म आने लगी । भारत में डर लगने लगा । यह सब “ढोंग” नकारात्मक प्रचार तंत्र का “टूल-किट” था। असल में तो भारत छोड़कर कोई गया नहीं । यहीं बैठ कर अभी भी, जिस थाली में खाते हैं – उसी में छेद करने का काम , निरंतर जारी है।

कश्मीर फाइल्स फिल्म के संदर्भ में भी, यही नकारात्मक प्रचार तंत्र फिर से सक्रिय होने लगा। किंतु सोशल मीडिया में, जागरूक लोगों की सक्रियता से, धीरे-धीरे समाज के लोगों को, “कश्मीर फाइल्स” के दृश्य “तथ्यों’ से मेल खाते नजर आए । उनकी आंखों के सामने, उस समय की “अखबारों की सुर्खियां” जीवंत नजर आने लगी ।
भुक्त-भोगी कश्मीरी हिंदू, अपने “दर्द” को सिनेमा के पर्दे पर उतरता देख , अपने आप को रोक नहीं पाए और आंखों से निकलते आंसुओं में अपनी पीड़ा को व्यक्त करने लगे। सोशल मीडिया में वायरल, इन छोटी-छोटी “सच्ची वीडियो क्लिप्स” ने भारतीय जनमानस को झकझोर दिया । व्यग्र समाज और जागरूक समाज ने, न केवल इस फिल्म को भारत में सफल बनाने का बीड़ा उठाया , बल्कि फिर से भारत के किस क्षेत्र में , इस तरह की पुनरावृति न हो , इस उद्देश्य से जागरूकता के साथ , सतर्क होने के लिए , इस फिल्म के माध्यम से, कड़वी सच्चाई देखने का आव्हान किया। ताकि “भ्रम” में जी रही युवा पीढ़ी को , तथ्यात्मक सच्चाई की जानकारी हो। इस फिल्म को देखने के बाद एक युवा का वक्तव्य अपने आप में बहुत कुछ कह देता है। कश्मीरी हिंदुओं का दर्द महसूस करने के लिए, एक बार इस फिल्म को देखें। फिर से ऐसा किसी और क्षेत्र में ना हो , इसलिए दूसरी बार भी इस फिल्म को देखें। “पास्ट के लिए यह फिल्म एक बार देखिए, फ्यूचर के लिए, दो बार यह फिल्म देखें।”

विडंबना का विषय है कि “कश्मीर फाइल्स” फिल्म भी बॉलीवुड के ही एक निर्देशक द्वारा बनाई गई, फिल्म है। किंतु पूरा का पूरा बॉलीवुड, इस फिल्म के साथ, खड़ा ना होकर, विपक्ष में खड़ा प्रतीत हो रहा है । पूरा “फिल्मी नेटवर्क” इस फिल्म को “फ्लॉप” दिखाने की कोशिश में , जुटा नजर आ रहा है । इस फिल्म को रिलीज के लिए मात्र 600 स्क्रीन ही मिली । जबकि किसी भी फिल्म को 2000-3000 स्क्रीन, रिलीज के लिए, आसानी से मिल जाती हैं। इसके अलावा पिक्चर हॉल के बाहर “हाउसफुल” का बोर्ड लगा कर टिकट बुकिंग रोक दी जाती है। दर्शकों को निराश होकर लौटना पड़ता है। जबकि हॉल में “अंदर सीटें खाली” पड़ी रहती हैं । फिल्म के प्रति भारत का नकारात्मक प्रचार-तंत्र पूरी सक्रियता दिखा रहा है। कश्मीर फाइल्स को “फिल्मी समीक्षक” कोरा-ड्रामा बताने की कोशिश में लगे हुए हैं। जबकि भारत की जनता फिल्म को हाथों-हाथ ले रही है।

लोगों की भावनाओं एवं फिल्म की तथ्यात्मक सच्चाई को देखते हुए ,कई राज्य सरकारों ने भी , इस फिल्म को “कर-मुक्त” करने की घोषणा की है ।

निर्देशक ने गहराई के साथ शोध, साक्षात्कार और दस्तावेजों का उपयोग करके, प्रभावी तरीके से उस समय की घटनाओं को, अपने “कथानक” में प्रस्तुत किया है। सटीक योजना बनाकर, सुदृढ़ अर्थ-तंत्र के माध्यम से, पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, दर्शकों को फिल्म दिखाई गई। कश्मीरी हिंदुओं के, “मानवीय-पहलू” को उजागर करते हुए , अंतरराष्ट्रीय मंचों पर निर्देशक ने उनके “दर्द” को विश्व के साथ साझा किया। भारत में विभिन्न मंचों के माध्यम से “प्रमोशन व प्रेस कॉन्फ्रेंस” की गई । धीरे-धीरे लोगों की उत्सुकता और जागरूकता बढ़ने लगी। नकारात्मक प्रचार तंत्र का “झूंठ” दिखने लगा। “भ्रम-जाल” टूटने लगा। “सत्य” नजर आने लगा तो, “युवा-पीढ़ी” भी जुड़ने लगी । सोशल मीडिया का “जागरूक लोगों” द्वारा, सकारात्मक उपयोग किया जाने लगा।

इसके परिणाम स्वरूप, तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए, विभिन्न मुद्दे भी समाज में उठने लगे जैसे बंगाल चुनाव पश्चात हिंदुओं की हिंसा पर तथाकथित बुद्धिजीवियों की “चुप्पी” हो या जेएनयू में टुकड़े-टुकड़े गैंग द्वारा “मजहब संबंधी नारों” पर, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए पैरवी ।

निश्चित रूप से कश्मीर फाइल्स ने, जनसाधारण को स्थितियों और विभिन्न तंत्रों की “संलग्नता” को समझने और विश्लेषण करने का एक “अवसर” दिया है।

विधु गर्ग