हिंदी
हिंदी, संस्कृत की अनुगामिनी है । विशुद्ध “संस्कृत” में यह विशेषता है कि , इसके माध्यम से कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक गहरी , तथ्यात्मक और सटीक बात कही जा सकती है ।
प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि ही, किसी भी विषय पर, अपनी आंतरिक एवं बाह्य शक्ति के द्वारा “तप” के माध्यम से शोध करते थे और फिर उसके परिणामों को संस्कृत में लिपिबद्ध करते थे । इसके साथ ही उन्होंने सरल व सहज वार्तालाप के लिए “प्राकृत” को प्रोत्साहित किया था । भगवान बुद्ध और भगवान महावीर ने जन-जन तक, अपने संदेश और उपदेशों के लिए “प्राकृत” को ही अपना माध्यम बनाया था। सामान्यतः प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही, हिंदी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है।
जब किसी क्षेत्र पर आक्रमण होता है तब सबसे पहले स्थानीय धर्म-संस्कृति और भाषा को नष्ट करने का प्रयास किया जाता है ।
विश्वविख्यात “नालंदा विश्वविद्यालय” में ज्ञान-विज्ञान ,साहित्य व भाषा का प्रचुर भंडार उपलब्ध था। कहा जाता है कि, उस को लूटने और नष्ट करने के उपरांत भी लगभग 3 माह तक उसकी आग बुझ नहीं पाई थी । कल्पना ही की जा सकती है कि, वहां कितनी अधिक लिखित सामग्री उपलब्ध थी । यह सब संस्कृत और प्राकृत में ही तो थी ।
समय-समय पर विदेशियों ने हमारे एकत्रित ज्ञान-भंडार को लूटा भी और नष्ट भी किया।
इस आधार पर कुछ हद तक यह कहना भी गलत नहीं होगा कि, वेदों के समय के लिखे गए कई तथ्य पिछली 6-7 शताब्दियों में किये गये, कई विज्ञान सम्मत प्रचारित सत्यों को स्थापित करने में सहयोगी सिद्ध हुए हैं । यह सारा ज्ञान भंडार किसी अन्य भाषा में ना होकर हमारी अपनी समृद्ध भाषा संस्कृत और प्राकृत में ही था ।
प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश का ही मुगल काल में “हिंदी” नाम पड़ना स्वाभाविक लगता है क्योंकि, भारत हिंदुस्तान के रूप में प्रचलित होना शुरू हुआ और स्थानीय भाषा हिंदी कहलाने लगी।
कालांतर में हिंदी साहित्य उत्तरोत्तर समृद्ध होता गया । मुगल काल में, हिंदी ने सामान्य बोलचाल में उर्दू के भी बहुत से शब्द अपने अंदर समाहित कर लिए और आधुनिक परिदृश्य में अंग्रेजी के शब्दों से भी कोई बैर नहीं रखा ।
यह एक स्वाभाविक अनुभव की बात है कि जब किसी विषय पर, “गंभीर चिंतन-मनन” किया जाता है तब भाषा का शुद्ध स्वरूप, विषय संदर्भ में उच्च कोटि का प्रभाव उत्पन्न करता है। इसलिए यह आवश्यक प्रतीत होता है कि , टीवी चैनलों पर समसामयिक विषयों पर, नियमित रूप से विद्वानों द्वारा, हिंदी भाषा के लगभग शुद्ध स्वरूप में भी वार्तालाप होना चाहिए।
मिथ्याभिमान ग्रसित तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी, यह आभास हो सके कि वृक्ष वही दीर्घजीवी होता है, जिसकी जड़ें धरती के अंदर सुदृढ़ होती हैं , मौसमी फूलों के पौधे तो एक मौसम में अपनी छटा बिखेर कर रह जाते हैं ।
हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिस पर सर्वाधिक आक्रमण हुए तथा आज भी इस पर आक्षेप लगाने की चेष्टा की जा रही है। यह गर्व की बात है कि हिंदी आज भी बहुत सम्मानजनक स्थिति में है ।
हिंदी इतनी व्यापक भाषा है कि “बाजार” को हिंदी की शरण में आना ही पड़ता है।
यह सत्य है कि कोई भी बड़ी से बड़ी बात अगर व्यापक स्तर पर रखनी है और लोगों के दिलों तक पहुंचानी है , उसके लिए हिंदी का ही सहारा लेना पड़ता है । यह हिंदी के गौरव को ही दर्शाता है।
हिंदी आज भी सम्मानजनक भाषा के रूप में मुख्यधारा में ही है। केवल मात्र दृष्टिकोण बदलने के साथ ही पुनः उच्च स्तर पर प्रतिष्ठित हो सकती है । जरूरत केवल ,थोड़ा हटकर दिखने या पढ़े-लिखे नजर आने का “दिखावा” कम करने की है । इसके साथ ही अंग्रेजी के प्रति “मानसिक दासता” से मुक्ति पाने की भी, अति आवश्यकता है।
सच्चाई यही है कि एक बार अंग्रेजी आने का “दिखावा” करने के बाद हिंदी जानने वाला व्यक्ति, भले ही बड़े से बड़े पद पर बैठा हो, बड़ा व्यवसायी हो , क्षेत्र विशेष का विशेषज्ञ हो , आज भी अपनी बात हिंदी में ही आगे बढ़ाता है।
उच्च कोटि का “हिंदी-साहित्य” लिखा भी जा रहा है और छप भी रहा है। यह बात अलग है कि , आज के प्रचारवादी युग में ,उसका इतना प्रचार नहीं हो पा रहा है।
इसके अलावा अंग्रेजियत में पला-बढ़ा आज का युवा वर्ग उसको समझने में अपने आप को असमर्थ पाता है।
यही एक विचारणीय बिंदु है जिस पर राष्ट्र के विद्वानों और विशेषज्ञों और सरकारी उच्च प्रतिनिधियों को ध्यान देने व हिंदी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता स्पष्ट करने की आवश्यकता है । इनके द्वारा जनसाधारण में यह स्पष्ट संदेश जाना अति आवश्यक है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, अंग्रेजी काम की भाषा तो हो सकती है किंतु राष्ट्रीय स्तर पर ,महात्मा गांधी की गहन दृष्टि द्वारा विश्लेषित “सहज-सरल-सर्वग्राही हिंदी” ही हमारी भाषा है।
हमारे प्रबुद्ध और परिपक्व माननीय नेता-अभिनेता, खिलाड़ी, नौकरशाह, विशेषज्ञ आदि मिथ्या अंग्रेजी मोह त्याग कर हिंदी को अधिकाधिक प्रयोग में लायें।
यह लोग लोकप्रिय इसलिए नहीं है कि, वह साक्षात्कार अंग्रेजी में देते हैं अपितु वह “हिंदी-माध्यम” का प्रयोग करते हुए, अपनी बातों और किए हुए कार्यों से, लोगों के दिलों में राज करते हैं।
जहां तक प्रश्न है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी प्रयोग करने का,तो यह प्रशिक्षण किसी भी बच्चे को कक्षा एक से कक्षा 8 तक के पाठ्यक्रम के माध्यम से अंग्रेजी में सहज ही निपुण कर देता है। इसके बाद पाठ्यक्रम का कुछ हिस्सा अंग्रेजी में हो और अधिकाधिक पाठ्यक्रम हिंदी में हो ।
इस कारण से हिंदी भाषा का ज्ञान सुदृढ़ होगा और अंतर्राष्ट्रीय भाषा का भी ज्ञान बढ़ेगा फिर हम राष्ट्रीय गरिमा से ओतप्रोत होकर, अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता में भाषा की दृष्टि से अग्रणी रहेंगे।
इतना अवश्य है कि स्थापित अंग्रेजी अभ्यासी लोगों को, थोड़े अतिरिक्त प्रयास निश्चित रूप से करने होंगे ।
जब बहुत बड़े स्तर पर हिंदी विचार मुखर होंगे जो निसंदेह राष्ट्र एवं समाज के लिए हितकारी सिद्ध होंगे । हमारे संविधान निर्माताओं ने 200 वर्षों के अंग्रेजी शासन से मुक्ति के बाद , आगे के 15 वर्षों के लिए अंग्रेजी भाषा को कामकाजी सहयोगी के रुप में अनुमोदित किया था ताकि हिंदी को बढ़ावा मिले और हिंदी ही मुख्य काम-काजी और सर्वप्रिय भाषा बने । किंतु सरकारों और उच्च नौकरशाही की, हिंदी के प्रति उदासीनता के चलते, अंग्रेजी को ही अधिक महत्व दिया गया । वास्तव में यह संविधान की मूल भावना के विपरीत है। सरकार को चाहिए , हिंदी मंत्रालय व विभाग को मजबूत बनाए और अधिकाधिक हिंदी अनुवादकों की नियुक्ति करे। समय बद्ध तरीके से अधिक से अधिक अनुवाद की प्रक्रिया आगे बढ़ाए। हर स्तर पर हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा दें। अनावश्यक हिंदी विरोध की अनदेखी करें।
“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिये को शूल”
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने , अपने इस दोहे में भाषा की संपूर्ण व्याख्या कर दी है ।
आज की युवा पीढ़ी को भी यह समझना होगा कि हमारा सच्चा सम्मान तभी है, जब हम अपनी भाषा का मान रखें और हिंदी को अधिकाधिक सम्मान दें ।
अंग्रेजी हमारे काम की भाषा तो हो सकती है, किंतु “हिंदी” हमारे संस्कार एवं सम्मान की भाषा है।
विधु गर्ग
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