चिढ़

चिढ़

चिढ़
होती है
जब रोकते-टोकते
हर बात पे बोलते
क्यूं नहीं समझते
चिढ़
होती है
मन, करना कुछ चाहता
पर करना कुछ और पड़ता
दिल पंछी फड़फड़ाता
चिढ़
होती है
समग्र, लगे रहते
समय खोते
अर्थ न पाते
चिढ़
होती है
चिढ़
जो चिढ़ेगा जितना
चिढ़ाया जाएगा उतना

अस्तित्व है
चिढ़ का चिढ़ में
चिढ़ मिटा
तभी
समझ सब आएगा
मुक्त आकाश में विचरेगा
अर्थ जीवन मिलेगा।।

विधु गर्ग