बप्पा रावल
बप्पा रावल राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र के संस्थापक के रूप में जाने जाते हैं। आठवीं शताब्दी में 729 से 753 तक की 19 वर्ष के शासनकाल में अपनी अद्वितीय युद्ध कौशल के आधार पर, मेवाड़ की शासन सीमा ईरान तक पहुंचाने की क्षमता दिखाकर, जनमानस में बप्पा (आदरणीय पिता समक्ष) के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं।
इतिहासकारों में बप्पा रावल के जन्म समय, राजवंश, अथवा तात्कालिक परिस्थितियों में, कुछ मतभेदों के उपरांत भी, मोटे तौर पर सामान्य अवधारणा के रूप में सहमति बन जाती है कि:-
बप्पा रावल का जन्म 712-713 में हुआ ।
इनके पिता भीलों के साथ युद्ध में मारे गए। इनका पालन-पोषण ब्राह्मणी माता ने किया । दो भीलों ने सदैव उनका साथ दिया। बप्पा रावल का नाम कालाभोज था। हरित ऋषि के आश्रम में जाकर इन्होंने शिव तत्व को जानने का प्रयास किया। हरित ऋषि के आशीर्वाद से ही, इनमें अद्भुत तेज और शौर्य की वृद्धि हुई। इनकी बहुत सारी रानियां भी थीं।
आठवीं शताब्दी में जब अरब आक्रमणकारी अफगान की सीमा पार करते हुए, काठियावाड़, कच्छ, सौराष्ट्र को ध्वस्त करते हुए, मेवाड़ क्षेत्र पर काबिज होने लगे। तब बप्पा रावल ने प्रतिहार राजा नागभट्ट प्रथम के साथ मिलकर, अपने युद्ध कौशल से, आक्रमणकारी सेना को खदेड़ना शुरू कर दिया और राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र को ईरान की सीमा तक ले गए।
बप्पा रावल ने अफगानिस्तान के गजनी के शासक सलीम को हराकर वहां भतीजे को गद्दी सौंप दी। वापस लौटते हुए बप्पा रावल ने हर 100 किलोमीटर पर, अपने 1000 सैनिकों की टोली भी छोड़ी। यह कारण भी रहा कि बप्पा रावल के शौर्य और रणनीति को देखते हुए आगे की तीन शताब्दियों तक, अरब आक्रातांओं की भारत पर नजर डालने की हिम्मत भी नहीं हुई। इस बीच बहुत से भारतीय राजाओं ने, अरब आक्रांताओं के विरुद्ध अपनी शक्ति भी संगठित करने का प्रयास किया।
बप्पा रावल ने चित्तौड़ किले के पास में ही भगवान शिव का मंदिर बनवाया । एकलिंग जी के नाम से प्रसिद्ध इस शिव मंदिर में बप्पा रावल ऋषि हारित के आशीर्वाद के साथ पूजा अर्चना किया करते थे। बप्पा रावल 753 ईसवी में राज्य-त्याग के बाद वन में जाकर, भगवान शिव की तपस्या में लीन हो गए। माना जाता है लगभग 100 वर्ष की आयु तक, वे इस भौतिक संसार में रहे ।
भारत भूमि और हिंदू धर्म को बचाने और संगठित करने में बप्पा रावल के योगदान और पराक्रम को सदैव स्मरण व नमन किया जाता रहेगा।
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