आस्तीन के सांप

आस्तीन के सांप

 

भारत अर्थात प्रकाश की खोज में लीन, हिंदुस्तान से आशय हिंदुओं का स्थान। 1947 से स्वतंत्रता के उपरांत, भारतवासी हिंदू अपने ही देश में, अपनी ही मान्यताओं के संदर्भ में भ्रमित “हो/किए” जा रहे हैं । “भारतीय सनातन संस्कृति” अति प्राचीन जीवन्त संस्कृति है। अनंत सत्ता को खोजने वाली, प्रकृति पर्यावरण को पूजने वाली, वसुधैव कुटुंबकम मानने वाली, सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया को व्यवहार में लाने वाली, सनातन संस्कृति के अनुयायी, सामान्यतया सकारात्मक एवं कर्म को ही धर्म मानकर आचरण करते हैं।

शायद इसीलिए ये भोले भारतवासी, लगभग 1000 साल की गुलामी का दंश झेलते रहे। हिंदू से मुसलमान बनने की यातना को, अपने परिवार और पीढ़ियों को बचाने की खातिर , सह लिया और केवल पूजा पद्धति का परिवर्तन ही मान लिया । कुछ पीढ़ियों तक ‘दबे-छुपे’ सनातन-संस्कारों में जीते भी रहे।

लेकिन समय के साथ, विदेशी आचार-विचार तथा लोभ-लालच के कारण और अंग्रेजों की “फूट डालो-राज करो” की नीति का प्रश्रय पाकर, हिंदुओं की “धर्म परिवर्तित पीढ़ियों” ने अपनी मूल संस्कृति से, विद्वेष करना शुरू कर दिया। इतना भी ‘दिमाग लगाने का कष्ट’ नहीं किया कि ,आक्रांता तो केवल पुरुष रूप में ही आए थे जिन्होंने इन पीढ़ियों को पिता का नाम तो दिया लेकिन इन पीढ़ियों की जननी तो इसी भूमि की पुत्रियां थीं, जिन्हें जबरन आक्रांताओं की हवस का शिकार होना पड़ा।

इस्लामी संस्कृति, स्वार्थपरता और अलगाव के फेर में पड़कर , अपनी ही मूल संस्कृति और भाई बांधव से अलग होकर “हिंदुओं की धर्म परिवर्तित पीढ़ियों” ने क्षुद्र स्वार्थी नेताओं के वशीभूत, 1947 में अपनी ही “जन्म-भूमि” का न केवल बंटवारा किया अपितु मजहब के नाम पर अंधे होकर, लाखों स्त्री-पुरुषों व बच्चों का निर्लज्ज बनकर नरसंहार भी किया।

स्वतंत्र भारत के “उतावले सत्ताधिकारियों” ने सनातन संस्कृति और 1000 साल के संघर्ष के पहले की “गौरवपूर्ण विरासत” को प्रतिष्ठित करने के स्थान पर, “वोट-बैंक पॉलिसी” के कारण सामान्जस्यता और उदारता के नाम पर, मुगल आक्रांताओं का ही महिमामंडन कर डाला।

इन सबके चलते स्वतंत्रता उपरांत की नई पीढ़ियां, प्राचीनता और आधुनिकता , परम्परावादी और उदारवाद , संप्रदायवाद और धर्मनिरपेक्षतावाद के द्वंद में उलझ गईं।

लोभ-लालच और सत्ता के गलियारों में आस्तीन के सांप पनपने लगे। स्वार्थपरता और सत्ता की खातिर समाज को खोखला करने की कवायद चल पड़ी। संविधान की ‘मनचाही / मनमानी’ व्याख्या की जाने लगी । झूंठे-सच्चे अफसाने गढ़े जाने लगे। भ्रम-पूर्ण कहानियां प्रचारित की जाने लगी। जो सच्चाई बताने का प्रयत्न करता, तो उसे संविधान और कानून का सहारा लेकर प्रताड़ित करने का प्रयास किया जाता है और उसकी आवाज दबाने की कोशिश की जाती या सांप्रदायिक घोषित कर दिया जाता।

चूंकि स्वतंत्र भारत अपने शैशव काल में था, इसलिए उस समय की स्वतंत्रता की अनुभूति ही उसके लिए बड़ी बात थी। अपनी सरकार पर उसका पूरा भरोसा था। भारतवासी अपनी सरकार का पूर्ण अनुमोदन और समर्थन करना अपना धर्म समझ रहे थे।

समय के साथ धीरे-धीरे विसंगतियां नजर आने लगी। लेकिन अब तक आस्तीन के सांप संवैधानिक संस्थाओं में अपनी अपनी पैठ बना चुके थे। विसंगतियों पर पैबंद लगाने में और अफसाने गढ़ने में माहिर हो चुके थे। आम जनता को चुनाव की राजनीति में उलझा कर भ्रमित कर देते थे।

इनके ताने-बाने में उलझी जनता अब अपने को बेबस तो महसूस कर रही थी, परंतु कुछ कर नहीं पा रही थी। जब पानी सर से ऊपर जाने लगा तो जनता जागृत हुई और 2014 में राष्ट्र के लिए जनादेश दिया। 2014 से 2019 तक राष्ट्रहित के काम देखकर 2019 में पूरे विश्वास के साथ राष्ट्र और सनातन संस्कृति के लिए जनादेश दिया।

इसीलिए गलियारों में बैठे ये “आस्तीन के सांप” लगातार बिलबिला रहे हैं । राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए बेसिर पैर की बातें करते हुए , अपनी राष्ट्र विरोधी सोच को ही उजागर कर देते हैं।

ये वह लोग हैं, जिन्हें भारत की जनता ने धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा इत्यादि से ऊपर उठकर, सिर पर बैठाया । किंतु ये लोग “संकीर्ण सोच” के साथ स्वार्थ के कुएं के मेंढक बने रहे।

चिदंबरम, दिग्विजय सिंह, हामिद अंसारी, मुनव्वर राणा, मणिशंकर अय्यर, सलमान खुर्शीद, इरफान हबीब, रोमिला थापर, बरखा दत्त,सबा नकवी,आमिर खान, नसीरुद्दीन शाह, जावेद अख्तर, स्वरा भास्कर इत्यादि की लंबी फेहरिस्त “राष्ट्र विरोधी सोच” के माध्यम से अपना परिचय स्वयं ही दे देती है।

जागृत जनता समय-समय पर इन आस्तीन के सांपों को, नेवले सदृश कुचलने का उपक्रम करने में जुटी हुई है।

विधु गर्ग