एक आवाज़
ये सरज़मीने इस्लाम है
ये औलिया और सूफियों की सरज़मीन है
यहां इस्लामी कानून राइज हैं
मगर यहां जिंसी मरीजों ने
मादा-ए-मन्विया(वीर्य)बिखेर रखा है
न दीन, न मज़हब,ना कानून
और न तुम्हारा नाम
हिफाजत कर सकता है
ये है
इस्लामी लोकतंत्र
और मैं एक औरत हूं
मेरा शौहर
चाहे तो चार शादी करें
और 40 औरतों से मुताअ…..
ईरान के “शाहरुख़ हैदर” के नाम से प्रचलित इस शायरी की, कुछ पंक्तियां ही, इस समाज की औरतों की बेबसी को बयां कर देती हैं ।
वर्तमान संदर्भ में, अफगानिस्तान में तालिबानियों का, मजहब के नाम पर, औरतों के साथ, किया जाने वाला व्यवहार, 21वीं सदी की सभी औरतों को एक बार , अपने लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए, सोचने पर तो मजबूर कर ही रहा है।
पर सवाल यह भी है कि…
क्या “औरत” धर्म, जाति ,भाषा ,क्षेत्र, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर, औलाद और शौहर का मोह त्याग कर, “इंसानियत और खुद की खातिर” एक आवाज बन सकती है ?
सदा से सुखों की कुर्बानी देती आई “औरत” इकट्ठा होकर, सामने आकर, मजहब के इन ठेकेदारों और आततायियों को ललकार सकती है?
अफगानिस्तान से आ रही ,विचलित कर देने वाली तस्वीरें, हर इंसान को झिंझोड़ रही हैं।
कैसे “रन वे” पर, स्थानीय जनता भाग रही है …
देश छोड़ने की कोशिश में , हवाई जहाज के पहियों पर लटके लोग , आसमान से गिर रहे हैं …..
आंखों के सामने अपने ही मजहब के लोग, मजहब के नाम पर ही, अपनों पर गोलियां चला रहे हैं ….
बच्चों का जीवन बच जाए, इसलिए मां-बाप कंटीली तारों के बीच, अपने बच्चों को उछाल कर ,विदेशियों से, संभालने की मिन्नतें कर रहे हैं…..
12 साल से अधिक की बच्चियों और 45 साल से कम की औरतों के लिए, तो तालिबानियों ने फरमान जारी कर ही दिया है कि उन्हें तालिबानियों को सौंपा जाएगा…..।
बकौल शाहरुख हैदर “इन जिंसी मरीजों को, मादाए मन्विया बिखेरने के लिए औरत चाहिए , इस औरत की हिफाजत, न दीन – न मज़हब – न कानून और ना ही उनका नाम कर सकता है।”
बुतपरस्ती के घोर विरोधी, जिंदा औरत को “बुत” बनाकर बुर्के में कैद करके रखना चाहते हैं और फिर मजहब के नाम पर इन लोगों को, यह सिलसिला आगे भी बढ़ाते रहना है।
अलग-अलग क्षेत्रों में बंटी औरत,
अलग-अलग मज़हबों में बंटी औरत,
अलग-अलग खेमों में बंटी औरत
अलग-अलग दलों में बंटी औरत
क्या देख पा रही है अफगानिस्तान में हो रही औरतों की त्रासदी को …
क्या भांप पा रही है , दक्षिण एशिया में बढ़ते जा रहे इस तालिबानी सोच के खतरे को …।
वक्त के इस नाजुक दौर में ,अपनी और अपनी बेटियों की इज्जत और जिंदगी को, बर्बर सोच से बचाने के लिए “औरत” को इकट्ठे होने की जरूरत है।
दक्षिण एशिया क्षेत्र में बढ़ते तालिबानी सोच के खतरे से , हमारा हिंदुस्तान भी अछूता नहीं है । किंतु फिर भी हिंदुस्तान में महिलाओं को अपनी बात कहने की, और कुछ भी करने की कानूनी रूप से पूरी स्वतंत्रता है। सामाजिक रूप से भी , किसी तरह के कोई बंधन नहीं है। बिना किसी भेदभाव के, किसी भी धर्म, क्षेत्र, जाति आदि की महिलाएं, ग्रामीण अथवा शहरी, अमीर या गरीब, पढ़ी-लिखी अथवा अनपढ़ महिलाएं भी अपनी बात रख सकती हैं। भारत का पुरुष समाज और संविधान भी व्यापक रूप में ,महिलाओं का मान करते हुए उनके साथ खड़ा होता है ।
हिंदू समाज की महिलाओं ने दहेज विरोधी , बाल-विवाह विरोधी, इत्यादि कानून बनवाए हैं। मुस्लिम समाज की महिलाओं ने भी संगठित होकर “तीन तलाक” के विरुद्ध आवाज़ उठाकर, सरकार से कानून पारित करवाया है।
“औरत” जन्मदात्री है, पालनकर्ता है , शक्तिपुंज है । आवश्यकता केवल एकजुट होने की है ।सामाजिक रूप से जागृत होने की है। वैचारिक और मजहबी दायरे से बाहर निकलकर , इंसानियत को कायम करने की है। इसके लिए व्यक्तिगत हितों की तिलांजलि देनी होगी। मोह-ममता की बेड़ियां तोड़नी पड़ेंगी। कट्टरपंथी और सामाजिक आक्षेपों का सामना करना पड़ेगा। जागरूक होकर, सब्र के साथ लंबी लड़ाई का हौसला रखना पड़ेगा।
तालिबानी सोच का प्रतिकार करने के लिए, हिंदुस्तानी महिलाएं संगठित होकर आवाज उठा सकती हैं । विभिन्न सामाजिक स्तरों पर, ग्रामीण और शहरी कार्यक्रमों में ,जागरूकता बढ़ाने के लिए “महिला गरिमा” की प्रतिष्ठा स्थापित करते हुए, तालिबानी बर्बर सोच के खतरे को रेखांकित किया जा सकता है ।
ये सच है कि यह सब करना कोई आसान काम नहीं होगा। किंतु अपनी ही औलादों के तसल्लीबख्श भविष्य के लिए , सबको मिलकर एक कोशिश करना भी जरूरी है ।
मानवता को पुष्ट करने के लिए ,हिंदुस्तान की हिंदू ,मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी बहने, एकजुट होकर “औरत की अस्मिता” की रक्षा के लिए , एक सार्थक पहल कर सकती हैं , “एक आवाज़” बन सकती हैं । हिंदुस्तान से प्रेरित होकर, दक्षिण एशिया के अन्य क्षेत्रों की महिलाओं को भी, इससे आवाज़ उठाने की हिम्मत मिलेगी।
विधु गर्ग
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